रैयतवाड़ी व्यवस्था क्या है? इसकी विशेषता तथा लाये जाने के पीछे का कारण | 2023

रैयतवाड़ी व्यवस्था क्या है? 

रैयतवाड़ी व्यवस्था क्या है? – भूराजस्व प्रणाली की एक एैसी व्यवस्था है  जिसमें भूराजस्व वसूली के लिए अंग्रेजी कंपनी का सीधा संपर्क किसानों के साथ रहता था अर्थात सरकार का रैयत से सीधा सम्पर्क होता था। इस व्यवस्था के अंतर्गत रैयतों या किसानों का भूमि पर मालिकाना हक होता था अर्थात कृषकों को भूमि बेचने, गिरवी रखने आदि का अधिकार दिया गया था। यह मुख्यतः मद्रास, बॉम्बे एवं असम के कुछ भागों में लागू की गई थी जिसके अंतर्गत ब्रिटिश भारत का 51% भाग शामिल था।

रैयतवाड़ी व्यवस्था, सर्वप्रथम सन् 1792 ई. में कर्नल रीड के द्वारा बारामहल क्षेत्र में लागू किया गया। यह व्यवस्था मद्रास में मुनरो द्वारा सन् 1820ई. में तथा एलिफिंस्टन के द्वारा बॉम्बे प्रेसीडेंसी में सन् 1825ई. में लागू किया गया। इस व्यवस्था में भू-राजस्व का निर्धारण उपज के आधार पर नहीं बल्कि भूमि की क्षेत्रफल के आधार पर किया गया।

रैयतवाड़ी व्यवस्था की विशेषताऍ 

  • इस व्यवस्था में सर्वप्रथम किसानों का भूमि पर मालिकाना हक होने के कारण किसान जब तक लगान देते रहतें तब तक उन्हें भूमि से बेदखल नहीं किया जा सकता था।
  • किसानों से सीधा संपर्क होने के कारण कंपनी को ही भूमि का माप, जोख तथा सर्वेक्षण करानी पड़ी, इससे कंपनी के दायित्व में बढ़ोतरी हुई तथा वसूली के साथ-साथ खर्चों में भी वृद्धि हुई।
  • रैयतवाड़ी व्यवस्था में भूराजस्व दरें नियत नहीं थीं।
  • सामान्यतः इसे 20-30 वर्षों के लिए लाया गया था। इस व्यवस्था में लगान अदायगी की हर 30 साल के बाद पुनः समीक्षा की जाएगी

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रैयतवाड़ी व्यवस्था लाए जाने के कारण 

रैयतवाड़ी व्यवस्था को लागू करने में वैचारिक, भौगोलिक, सामाजिक एवं आर्थिक कारकों की मुख्य भूमिका थी जो निम्नलिखित हैं:-

वैचारिक कारण:-

रैयतवाड़ी व्यवस्था को लागू करने में यूरोपीय विचारधारा की महत्वपूर्ण भूमिका रही इसमें उपयोगितावाद के सिद्धांत द्वारा ‘अधिक्तम लोगों के अधिक्तम सुख’ की बात की गई तथा रिकार्डो एवं माल्थस जैसे विचारकों ने जमींदारों को एक अनुत्पादक वर्ग माना और कहा की कंपनी को किसानों से सीधा संपर्क करना चाहिए न की जमींदारों के माध्यम से अतः रैयतवाड़ी व्यवस्था पर इसका प्रभाव दिखता है।

स्थलाकृतिक/भौगोलिक कारण:- 

उत्तर में मैदानी भूमि होने की वजह से पूरे एक छेत्र का मालिकाना हक जमींदारों को दे दिया जाता था परन्तु दक्षिण की भूमि पठारी होने के कारण छोटे-छोटे खंड़ो में बंटी हुई थी तथा इन्हें एक जगह इक्कठा नहीं किया जा सकता था। अतः यहाँ किसानों से सीधे भूराजस्व वसूल किया जा सकता था।

स्थायी बंदोबस्त से सीख:-

अनेक ब्रिटिश अधिकारी मानते थें कि स्थायी बंदोबस्त सही बंदोबस्त नहीं है क्योंकि एक तरफ इसमें किसानों का अधिक शोषण है, तो दूसरी तरफ कंपनी के आय में कमी आयीअतः अधिकांश अंग्रेज़ सीधे सीधे किसानों से व अस्थायी व्यवस्था लाए जाने के पक्षधार थें 

सामाजिक कारण:-

रैयतवाड़ी व्यवस्था मूलतः दक्कन के छेत्रों में लागू की गई थी क्योंकि उत्तर की भूमि यहाँ जमींदारों का वर्चस्व नहीं था। यही कारण है कि इस व्यवस्था को लागू करते समय किसानों के विकल्प पर ध्यान दिया गया 

आर्थिक कारण:-

इस व्यवस्था को लागू करने के पीछे आर्थिक कारण यह था कि उन दिनों कंपनी अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाना चाहती थी इसलिए कृषि वाणिज्यकरण पर ज्यादा जोर दिया अर्थात नगदी फसलों पर ज्यादा तथा खाद्दान फसलों पर कम ध्यान दिया।

रैयतवाड़ी व्यवस्था के गुण

  • इस व्यवस्था से सरकार व किसानों के बीच सीधा संबंध स्थापित हुआ। जब तक किसान निर्धारित राजस्व देते रहतें उनको उनकी भूमि से हटाया नहीं जा सकता था।अर्थात उन्हें उनकी भूमि से उन्हें बेदखल नहीं किया जा सकता था।
  • इसके तहत किसानों/रैयतों का सरकार से सीधा संबंध स्थापित होने के कारण सरकार के न्याय व्यवस्था व प्रशासन के प्रति लोगों में विश्वास उत्पन्न हुआ।
  • इस प्रणाली से सरकार व कृषक दोनों को लाभ मिला। कृषकों को भूमि का स्वामी मानने के कारण उनमें भूमि में काम करने की प्रेरणा उत्पन्न हुई। जिससे उत्पादन में वृद्धि हुई तथा सरकार की आय में भी काफी वृद्धि हुई।
  • इस व्यवस्था में किसान सैद्धांतिक रूप से अधिक स्वतंत्र थें, क्योंकि इसमें बिचौलिए या मध्यस्थक के हस्तक्षेप का कोई भय नहीं था।

रैयतवाड़ी व्यवस्था के दोष

  • इस व्यवस्था में सरकार के प्रशासनिक कार्य भार में वृद्धि हुई क्योंकि सरकार कर वसूलने में सीधे संलग्न थी। अतः उसे भूमि के सर्वेक्षण माप तथा वसूली पर अधिक वित्तीय खर्च करना पड़ा और यही कारण है कि इसे स्थाई बंदोबस्त से महंगी व्यवस्था माना गया।
  • रैयतवाड़ी व्यवस्था में लगान की दर काफी अधिक थी। कई बार किसानों को उनके श्रम का लाभ भी नहीं मिल पाता था, अतः किसानों का काफी शोषण हुआ। 
  • इस व्यवस्था में किसान सूदखोरों के ऋण जाल में अधिक फसते हुए दिखाई देते थें। क्योंकि लगान देने के लिए भी किसान ही प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार थें। अतः कई बार सूदखोरों से ऋण लेकर लगान देना पड़ता था और समय पर ऋण चुकता न करने की स्थिति में किसान ऋण जाल में भी फंस जाते थें। इससे उनकी जमीनों पर अंग्रेजों का कब्जा हो जाया करता था।
 

निष्कर्ष – 

अतः यह कहा जा सकता है कि भले ही रैयतवाड़ी व्यवस्था किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए लागू की गई थी परन्तु कंपनी यहाँ भी भूराजस्व की दरें ऊँची करके तथा नगदी फसलों के उत्पादन के लिए किसानों को बाध्य करके उनका शोषण तथा अपने हितों को साधते नजर आयी।

FAQ

Q – रैयतवाड़ी व्यवस्था कितने प्रतिशत क्षेत्र में फैली हुई थी ?

Ans – रैयतवाड़ी व्यवस्था भारत के 51% क्षेत्र में फैली हुई थी

Q – रैयतवाड़ी भू राजस्व व्यवस्था किसके द्वारा लागू की गई ?

Ans – रैयतवाड़ी व्यवस्था वर्ष 1792 में कर्नल रीड के द्वारा लागू की गई थी

Q – रैयतवाड़ी व्यवस्था की विशेषताएं ? 

Ans – रैयतवाड़ी व्यवस्था सीधे किसानों से किया जाने वाला व्यवस्था था इसके तहत रैयतों या किसानों को भू-स्वामी स्वीकार किया गया कृषकों को भूमि बेचने, गिरवी रखने या किराए पर उठाने का अधिकार दिया गया इस व्यवस्था की अवधि 30 वर्ष की थी तथा इसके राजस्व की दरों में उतार-चढ़ाव की गुंजाइश भी थी इसमें राजकीय भू-राजस्व कर्मचारी द्वारा किसानों से लगान वसूला जाता था प्रारंभ में इसमें उपज का लगभग आधा भाग लगान के रूप में वसूला गया हालांकि बाद में इसे ⅓  तीन कर दिया गया इस व्यवस्था में कंपनी को भूमि के वर्गीकरण, सर्वेक्षण, माप – जोख आदि का भार वहन करना पड़ा जिससे उनको काफी वित्तीय क्षति उठानी पड़ी

Q – रैयतवाड़ी व्यवस्था सर्वप्रथम किस क्षेत्र में लागू की गई थी ?

Ans – रैयतवाड़ी व्यवस्था सर्वप्रथम वर्ष 1792 में कर्नल रीड के द्वारा मद्रास प्रेसीडेंसी के बारामहल जिले में लागू की गई थी

Q – रैयतवाड़ी व्यवस्था में भू-राजस्व का निर्धारण किस प्रकार किया जाता था ?

Ans – इस व्यवस्था में भू-राजस्व का निर्धारण उपज के आधार पर नहीं बल्कि “भूमि की क्षेत्रफल” के आधार पर किया जाता था

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