न्यायिक सक्रियता क्या है?-What is Judicial Activism?

हमारे इस लेख में हम आपको न्यायिक सक्रियता क्या है ? इस संकल्पना ने जहां एक ओर लोकतंत्र को मजबूती प्रदान की है वहीं इससे कुछ विवाद भी उत्पन्न हुए हैं | इस बारे में चर्चा करेंगे |

यदि हम भारत की बात करें तो भारत एक लोकतांत्रिक देश है | भारतीय लोकतंत्र तीन स्तंभों कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका पर टिका हुआ है | वर्तमान संदर्भ में देखा जाए तो न्यायपालिका इन तीनों स्तंभों में से सबसे मजबूत स्तंभ माना जाता है, क्योंकि न्यायपालिका संविधान के उचित व्याख्या करने, केंद्र और राज्य के बीच शक्तियों के बंटवारे को लेकर समन्वय बनाने, आम नागरिकों के हितों की रक्षा करने, मूल अधिकारों की रक्षा करने, विधायिका एवं कार्यपालिका को अपनी शक्तियों का गलत उपयोग करने से रोकने तथा वर्तमान समय में न्याय प्रदान करने के साथ-साथ नीति निर्धारक की भूमिका भी अदा कर रहा है |

 

न्यायिक सक्रियता क्या है?

न्यायिक सक्रियता(Judicial Activism)-

न्यायिक सक्रियता वर्तमान समय में काफी चर्चा का विषय बनी हुई है | इस अवधारणा की उत्पत्ति 1947 में इतिहासकार ”आर्थर स्लेसिंगर जूनियर” द्वारा अमेरिका में हुई थी | भारत में न्यायिक सक्रियता के सिद्धांत की नींव ”न्यायमूर्ति पी. एन. भगवती, न्यायमूर्ति वी. आर. कृष्णा अय्यर, न्यायमूर्ति डी. ए. देसाई, न्यायमूर्ति ओ. चिन्नाप्पा रेड्डी”  ने 1970 के दशक  के मध्य में रखी थी |

जब न्यायपालिका समाज में न्याय को बढ़ावा देने न्याय जागरूकता को बढ़ाने, साथ ही नागरिकों के अधिकारों  के संरक्षण हेतु स्वयं आगे बढ़कर अपने कर्तव्य का निर्वहन करें न्यायिक सक्रियता कहलाता है |न्यायिक सक्रियता को न्यायिक गतिशीलता के रूप में भी जाना जाता है |

न्यायिक सक्रियता के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं (Some examples of Judicial Activism)

हुसैन आरा खातून बनाम बिहार सरकार (1979) –  इसके अंतर्गत जेल में बंद विचाराधीन कैदियों जिन्होंने इतनी सजा काट ली थी जितनी कि उन्हें न्यायालय द्वारा न मिलती, वैसे बंधुओं को त्वरित न्याय प्रदान किया  गया | इसमें शीर्ष अदालत ने देश की जेलों में बंद 40 हजार कैदियों को फौरन रिहा करने का आदेश दिया था | इस मामले के बाद से देश में जनहित याचिका यानी पीआईएल (PIL- Public Interest Litigation) का चलन आया |

केशवानंद भारती मामला (1973) –  इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों की अब तक की सबसे बड़ी संवैधानिक पीठ ने अपने निर्णय से यह स्पष्ट कर दिया कि, भारत में संसद कि नहीं बल्कि संविधान की सर्वोच्चता है। इस निर्णय के अनुसार संसद ऐसा कोई संशोधन नहीं कर सकती जो संविधान के मौलिक ढांचे को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता हो |

मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) – इस मामले में पासपोर्ट संबंधी विषय पर उच्चतम न्यायालय ने पहली बार विधि की स्थापित प्रक्रिया की जगह विधि सम्यक प्रक्रिया को अपनाया |

 

न्यायिक सक्रियता द्वारा लोकतंत्र को मजबूती(Strengthening democracy through Judicial Activism)-

न्यायिक सक्रियता के वो पक्ष जिसने लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने का काम किया उसे निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है:-

  • न्यायपालिका ने न्यायिक सक्रियता के संकल्पना को आधार देते हुए ज्यादा से ज्यादा न्यायिक वितरण किया साथ ही समाज में सभी के लिए सामान्य न्याय की अवधारणा हेतु न्यायिक जागरूकता को बढ़ाने का काम किया परिणाम स्वरूप ग्रामीण परिवेश तथा पिछड़े वर्ग के लोग भी अब अपनी न्यायिक अधिकारों के प्रति जागरूक हो गए हैं जो किसी भी लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करता है |

 

  • न्यायपालिका द्वारा उन लोगों तक भी न्याय पहुंचाया गया जो न्यायपालिका के पास नहीं जा सकते हैं जैसे – कोरोना महामारी के दौरान उच्चतम न्यायालय द्वारा अंडमान में रहने वाली जनजातियों के लिए टीकाकरण हेतु निर्देश दिया गया |

 

  • सर्वोच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों का रक्षक कहा गया है | अतः न्यायिक सक्रियता का परिचय देते हुए  न्यायपालिका ने विधियों की गहन समीक्षा कर के मूल अधिकारों विरोधी तत्वों के अस्तित्व के कारण कुछ कानूनों को रद्द भी कर दिया जैसे- कृषि कानून पर न्यायालय  का  रोक साथ ही समिति बनाने का निर्देश दिया |

 

  •  समय-समय पर संविधान की रक्षा तथा विधायिका एवं कार्यपालिका को अपने कर्तव्य का बोध करा कर न्यायपालिका ने स्वतंत्र व निष्पक्ष लोकतंत्र के निर्माण में अपनी सहभागिता प्रस्तुत की है |

 

न्यायिक सक्रियता से उत्पन्न विवाद (Disputes arising out of Judicial Activism)-

न्यायाधीशों की सक्रियता ने जहां एक तरफ समाज, नागरिकों तथा जनजातियों के हितों को संरक्षण प्रदान कर लोकतंत्र को मजबूती प्रदान की है वहीं कई विवादों को जन्म भी दिया जो कहीं ना कहीं संविधान की मूल भावना को आहत करते प्रतीत होते हैं जैसे-

 

  • शक्ति पृथक्करण का उल्लंघन –हालांकि संविधान के तीन स्तंभ कार्यपालिका न्यायपालिका एवं  विधायिका को अपने अपने अधिकार प्राप्त हैं परंतु न्यायपालिका की सक्रियता के कारण शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन होता है |

 

  • न्यायपालिका का विधायिका एवं कार्यपालिका के क्षेत्र में अनावश्यक हस्तक्षेप – न्यायपालिका विधि निर्माण के साथ-साथ कार्यपालिका की भूमिका में भी आ जाती है जैसे-दिवाली में पटाखों के लिए समय तय करना, पटाखों के प्रकार तय करना, विशेष गाइडलाइन  तय करना – कार्यस्थल पर महिलाओं के उत्पीड़न से संबंधित गाइडलाइन जारी करना विधायिका तथा कार्यपालिका का कार्य है परंतु फिर भी न्यायपालिका यहां हस्तक्षेप करती है |

 

  • न्यायपालिका का  अधिनायकवादी  रवैया – न्यायपालिका का अधिनायकवाद ही हो जाना अर्थात अपनी शक्तियों का प्रयोग स्वच्छंदता पूर्वक या मनमाने ढंग से करना कहीं ना कहीं विवादों को तूल देता है |

 

  • विशेषज्ञता ना होने के बावजूद  निर्णयन – जरूरी नहीं है कि न्यायाधीश हर एक क्षेत्र में विशेषज्ञ ही हो इसके बावजूद निर्णय या निर्देश देना न ही देश के हित में सही है, न ही देश की जनता और न ही लोकतंत्र के लिए |

 

  •  स्वयं के  गौरवगान का प्रयास –कुछ न्यायाधीशों द्वारा स्वयं के गौरवगान के स्वार्थवश भी लिया गया निर्णय विवादों को जन्म दिया जाता है |

 

निष्कर्ष-

अतः कुल मिलाकर कहा जाए तो न्यायिक सक्रियता एक स्वच्छ व स्वच्छंद लोकतंत्र के लिए आवश्यक है, बशर्ते की न्यायिक सक्रियता, न्यायिक अतिसक्रियता का शिकार न बन जाए | आवश्यक है कि न्यायपालिका से जुड़े लोग सिर्फ अपने स्वार्थ सिद्धि का ध्यान न रखते हुए समाज में गरीब तथा जरूरतमंदों को न्याय मिले इसके दिशा में निरंतर प्रयास करें |


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