सविनय अवज्ञा आंदोलन part-2
यह ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन part-2′ है। इससे पहले सविनय अवज्ञा आंदोलन के पार्ट – 1 वाले लेख में हमने सविनय अवज्ञा आंदोलन क्या था? आंदोलन की शुरुआत कैसे हुई, कारण, सामाजिक आधार/ वर्गीय भागीदारी, क्षेत्रीय प्रसार, महत्व एवं प्रभाव की विस्तारपूर्वक चर्चा की है। जिसका लिंक हमने नीचे दे दिया है।
Read More – सविनय अवज्ञा आंदोलन क्या है? कारण, क्षेत्रीय प्रसार, महत्व एवं प्रभाव (Part-1)
12 मार्च 1930 को शुरू हुई सविनय अवज्ञा आंदोलन का नेतृत्व 1930 – 1934 के बीच गांधीजी ने दो चरणों में किया था ।
गांधी-इरविन समझौता: (सविनय अवज्ञा आंदोलन part-2)
गांधी इरविन समझौता 5 मार्च 1931 को हुआ था। जिस समय भारत में कांग्रेस द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया जा रहा था, उसी समय लंदन में गोलमेज सम्मेलन (Round Table Conference) हो रहा था। प्रथम गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस ने भाग नहीं लिया, फलतः अनेक ब्रिटिश नेताओं तथा सरकार ने कांग्रेस की काफी आलोचना की। साथ ही कांग्रेस एवं गांधी जी पर आंदोलन वापस लेकर वार्ता में भाग लेने का दबाव पड़ा, और इन्हीं परिस्थितियों में गांधी-इरविन समझौता हुआ।
गांधी-इरविन समझौते में तेज बहादुर सप्रू तथा एम.आर.जयकर ने इरविन तथा गांधी के बीच मध्यस्थता की भूमिका निभाई थी।
गांधी-इरविन समझौते के मुख्य बिंदु
- गांधी-इरविन समझौते में सरकार द्वारा कहा गया कि राजनीतिक बंदियों तथा अहिंसात्मक विरोध के मामले में गिरफ्तार लोगों को रिहा कर दिया जाएगा। हिंसात्मक मुकदमों को छोड़ अन्य सभी को वापस ले लिया जाएगा।
- आंदोलन के दौरान जब्त की गई संपत्ति को वापस कर दिया जाएगा तथा नौकरी छोड़ने वाले को पुनः नौकरी दी जाएगी।
- समुद्र किनारे बसे लोगों को नमक बनाने का अधिकार दिया जाएगा।
- शराब एवं नशीले पदार्थों के विरुद्ध शांतिपूर्ण धरना देने का अधिकार मिलेगा।
- कांग्रेस ने कहा कि वह सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस ले लेंगे तथा द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेंगे। (सविनय अवज्ञा आंदोलन part-2)
नोट- कांग्रेस ने अरविंद से सविनय अवज्ञा के दौरान पुलिस के द्वारा की गई ज्यादतियों के जांच की मांग की थी लेकिन सरकार ने इसे नहीं माना।
गांधी-इरविन समझौता की समीक्षा
कई लोगों ने गांधी-इरविन समझौते कि आलोचना भी की तो कइ मायनों में इसे महत्वपूर्ण भी माना गया जो इस प्रकार है:-
आलोचना
- आलोचकों का कहना है कि समझौते में सरकार द्वारा प्रदान की गई छूट कारगर नहीं थी। इसमें सोलापुर के मजदूरों तथा गढ़वाली रेजिमेंट के सिपाहियों के रिहाई की शर्त शामिल नहीं थी। जबकि उन्होंने आंदोलन में काफी त्याग किया था,अपनी जान को जोखिम में डाला था। पुलिस द्वारा कि गई दुर्व्यवहार के जाँच की मांग की गई थी, सरकार ने उसे भी नहीं माना।
- समझौते में पूर्ण स्वराज की बात तो दूर है, डोमिनियन स्टेटस को भी नहीं माना गया।
- आलोचकों का कहना है कि गांधीजी ने इस समझौते में भगत सिंह एवं उनके साथियों को बचाने की कोई कोशिश नहीं की।
महत्त्व
- कुछ कमियों के बावजूद समझौता अनेक दृष्टि से गांधी-इरविन समझौता महत्वपूर्ण था। क्योंकि इसके द्वारा पहली बार सरकार एवं कांग्रेस के बीच बराबरी का समझौता हुआ था। इससे कांग्रेस एवं गांधी का कद काफी बढ़ा जिसका आगे कि राजनीति पर सकारात्मक असर पड़ा।
गोलमेज सम्मेलन (1930-32)
प्रथम गोलमेज सम्मेलन – (12 नवंबर 1930 – 19 जनवरी 1931)
- इसमें कांग्रेस ने भाग नहीं लिया था।
- एनी बेसेंट ने व्यक्तिगत रूप से अपने खर्चों पर इस सम्मेलन में भाग लिया था।
- इस समय भारत के वायसराय इरविन तथा भारतीय सचिव ब्रेड वुड थें।
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन – (7 सितम्बर 1931 – 1 दिसंबर 1931)
- इसमें कांग्रेस ने भाग लिया।
- गांधीजी ने कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के तौर पर इस सम्मेलन में भाग लिया।
- गांधीजी ने एम.ए.अंसारी को भी नामित किया था लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें स्वीकृति नहीं दी।
- सरोजिनी नायडू तथा मदन मोहन मालवीय ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में व्यक्तिगत रूप से खुद के खर्चे पर भाग लिया था।
- इस समय वायसराय तथा भारत सचिव बदल चुके थें नया वायसराय विलिंगटन तथा भारत सचिव सैमुअल होर को बनाया गया।
- यह सम्मेलन फ्लॉप रहा, इसमें कोई विशेष समझौता नहीं हो पाया।
तृतीय गोलमेज सम्मेलन (17 नवंबर 1932 – 24 दिसंबर 1932)
- तृतीय गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस द्वारा भाग नहीं लिया गया।
- इसके अंतिम रिपोर्ट को आगे 1935 के एक्ट में शामिल किया गया।
नोट –
- तीनो गोलमेज सम्मेलन की अध्यक्षता ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड ने किया था।
- तेज बहादुर सप्रू तथा अंबेडकर ने तीनों ही गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया था।
- अंबेडकर ने अपनी पार्टी इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी तथा सप्रू ने अपनी लिबरल पार्टी का प्रतिनिधित्व किया था।
सविनय अवज्ञा आंदोलन का द्वितीय चरण: (सविनय अवज्ञा आंदोलन part-2)
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन से निराश होकर गांधीजी स्वदेश लौटे तथा जनवरी में सविनय अवज्ञा को दोबारा प्रारंभ किया। लेकिन इस बार परिस्थितियां काफी बदल चुकी थीं नया वायसराय विलिंगटन काफी दमनकारी स्वभाव का था। 4 जनवरी को ही गांधी, नेहरू तथा पटेल जैसे नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। कांग्रेस के अन्य प्रमुख नेता भी गिरफ्तार कर लिए गए, साथ ही कांग्रेस को अवैध संस्था घोषित कर दिया गया।
हालांकि इस बार जनता की भागीदारी भी पूर्व जैसी नहीं रही फिर भी लाखों लोग आंदोलन में शामिल हुए। आंदोलन के दौरान 1 लाख लोगों को जेल में डाल दिया गया और धीरे-धीरे आंदोलन कमजोर हो गया । अंततः मार्च 1934 में कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन को (सविनय अवज्ञा आंदोलन part-2) आधिकारिक रूप से वापस ले लिया।
द्वितीय चरण के सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान महत्वपूर्ण घटनाएं
मैकडोनाल्ड अवार्ड/ साम्प्रदायिक पंचाट ( अगस्त 1932)
♦हरिजनों को हिंदू समाज से पृथक मानते हुए मुसलमानों की भांति इस अवार्ड में पृथक निर्वाचन सिद्धांत प्रदान किया गया, ताकि हिंदुओं को कमजोर किया जा सके।
♦पृथक निर्वाचन के सिद्धांत में केवल हरिजनों को ही शामिल नहीं किया गया था बल्कि इसमें मजदूर, एंग्लो इंडियन, भारतीय, ईसाई, जमींदार आदि सभी शामिल किए गए। लेकिन गांधीजी ने केवल हरिजनों को शामिल करने का विरोध किया।
♦गांधीजी ने मैकडोनाल्ड अवार्ड के खिलाफ आमरण अनशन प्रारंभ कर दिया। इससे अंबेडकर पर दबाव पड़ा फलतः पूना समझौता हुआ।
♦पूना पैक्ट/ गांधी-अंबेडकर समझौता – इस समझौते पर मदन मोहन मालवीय, अंबेडकर, राजगोपालाचारी आदि ने हस्ताक्षर किए थें।
पूना पैक्ट/समझौता की शर्तें
- प्रांतीय विधायिका में हरिजनों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 71 से बढ़ा कर 148 कर दी गई।
- पृथक निर्वाचन का सिद्धांत नहीं माना गया।
- हरिजनों के लिए नौकरियों में आरक्षण देना स्वीकार किया गया।
- हरिजन शिक्षा एवं रचनात्मक कार्यों पर बल देने पर सहमति बनी।
सविनय अवज्ञा आंदोलन की समीक्षा:(सविनय अवज्ञा आंदोलन part-2)
आलोचना
अनेक इतिहासकारों द्वारा कई बिंदुओं के आधार पर इसकी आलोचना की गई है। जो निम्न हैं:-
♦गांधी इरविन समझौता की आलोचना करते हुए उनका कहना है कि गांधीजी को यह समझौता नहीं करना चाहिए था। क्योंकि इसके कारण कांग्रेस को कुछ विशेष प्राप्त नहीं हुआ, ऊपर से आंदोलन को स्थगित करने से राष्ट्रीय आंदोलन कमजोर हुआ।
♦अनेक आलोचकों ने गांधीजी द्वारा आंदोलन प्रारंभ करने, स्थगित करने तथा पुनः प्रारंभ करने की रणनीति एवं शैली पर सवाल खड़े किए। कहां गया कि गांधीजी का यह तरीका सही नहीं था। इससे अंग्रेज अंग्रेजों पर पर्याप्त दबाव नहीं बनाया जा सका।
♦मार्क्सवादियों का कहना है कि गांधीजी अपना हित देखकर आंदोलन को वापस ले लेते थे, जनता के हितों का ध्यान नहीं रखते थे।
♦विचारकों ने गांधी जी को बुर्जुआ (मध्यमवर्ग) एवं पूंजीपतियों का समर्थक मानते हुए निंदा की है। उनका कहना है कि जब जनता जोश में आती थी तब गांधी जी जानबूझकर आंदोलन को वापस ले लेते थे। उन्हें भय था कि आंदोलन का नेतृत्व जनता के हाथ में न आ जाए।
महत्व
♦यह आंदोलन काफी विस्तृत जुझारू तथा पूर्ण अहिंसक था। जिसमें समाज के लगभग सभी वर्गों ने यहां तक की आदिवासी, पिछड़े वर्ग की महिलाओं ने व्यापक भागीदारी की इससे भारतीय राष्ट्रवाद काफी मजबूत हुआ।
♦आंदोलन के दौरान अहिंसा का पालन किया गया तथा सरकार ने इस को कुचलने के लिए दमन का सहारा लिया। इससे ब्रिटिश सरकार का क्रूर चेहरा उजागर हुआ।
♦आंदोलन के दौरान ब्रिटिश पूंजीपतियों को काफी चोट पहुंचा। इस दौरान कपड़ा सहित अनेक विदेशी वस्तुओं का आयात काफी हद तक कम हो गया।
♦सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारण गांधीवादी तरीके एवं साधनों, सत्याग्रह, अहिंसा आदि के प्रति जनता ने पूर्ण विश्वास जताया। आंदोलन के कारण आजादी पाने की आम जनता की इच्छा और मजबूत हुई।
निष्कर्ष: (सविनय अवज्ञा आंदोलन part-2)
अंततः यह कहा जा सकता है की सविनय अवज्ञा आंदोलन ने न सिर्फ सभी वर्गों को एक साथ लाने का कार्य किया। बल्कि भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना को भी उजागर किया जो देश की आजादी में मील का पत्थर साबित हुआ। हमने यहाँ सविनय अवज्ञा आंदोलन को दो भागों (सविनय अवज्ञा आंदोलन part-2) में बाँट कर समझाया है ताकि पाठकों में एक अच्छी समझ विकसित हो। यदि आपको किसी अन्य विषय पर भी कोई लेख चाहिए तो हमें कमेंट करके जरुर बताएं।