बिरसा मुंडा आंदोलन
“बिरसा मुंडा आंदोलन” भारतीय इतिहास में अनेकों महान आंदोलनों में से एक है, जिसने देश को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया है। यह आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण चरित्र के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुका है। इस ब्लॉग में हम बिरसा मुंडा जी के जीवन, उनके कार्य और उनके आंदोलन के महत्व के बारे में चर्चा करेंगे।
बिरसा मुंडा आंदोलन/विद्रोह की शुरुआत 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में हुई। इस विद्रोह के प्रमुख नेता बिरसा मुंडा थें जिनका जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड में हुआ था। उनके पिता का नाम सुगना मुंडा और माता का नाम करमी था। वह जनजाति क्षेत्र के लोगों के बीच देवा के नाम से भी प्रसिद्ध थे। मुंडा एक जनजातीय समूह था जो छोटा नागपुर पठार क्षेत्र में निवास करते थें जिसे दामन-ए-कोह भी कहा जाता था।
सन 1900 ई. में बिरसा मुंडा द्वारा आदिवासी लोगों को संगठित करता देखकर ब्रिटिश सरकार ने बिरसा मुंडा को विद्रोह भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया तथा उन्हें 2 साल की सजा सुना दी गई। बिरसा मुंडा आंदोलन/विद्रोह 19वीं सदी के आखिरी दशक में किया गया सर्वाधिक महत्वपूर्ण जनजाति विद्रोहों में से एक है।
बिरसा मुंडा आंदोलन के कारण
1.आर्थिक कारण
- मुंडा जनजातियों के मध्य खेती की एक विशेष प्रणाली, ‘खूंटकटी व्यवस्था’ के नाम से प्रचलित थी जिसके अंतर्गत कृषि सामूहिक भूमि स्वामित्व के द्वारा संचालित होती थी, परंतु ब्रिटिश सरकार ने इस व्यवस्था को समाप्त कर जमींदारी व्यवस्था को लागू कर दिया जिससे कहीं न कहीं जनजातियों में असंतोष की भावना जागृत कर दिया।
- भू-राजस्व को अनियंत्रित तरीके से बढ़ाया गया।
- मुंडाओं के अहम् संपत्ति यानी, जंगल के प्रयोग से उन्हें वंचित कर दिया गया जो उनके आजीविका के प्रमुख साधन थें।
- अत्यधिक भू-राजस्व होने के कारण मुंडा भुगतान करने में असमर्थ रहते थें, जिसने उन्हें महाजनों के चंगुल में फंसा दिया परिणामतः महाजनों द्वारा उनका शोषण किया जाने लगा।
2.सामाजिक कारण
- किसी भी समाज की अगर आर्थिक स्थिति को क्षति पहुँचाया जाता है तो सामाजिक संरचना स्वतः ही छिन्न-भिन्न हो जाती है, यही स्थिति मुंडाओं के साथ भी हुई।
- यहाँ की जमीनें ब्राह्मणों को दान स्वरुप मिलने लगी जिन्होंने पहले यहाँ के समाज पे हस्तक्षेप किया तथा बाद में वो जमींदार की भांति व्यवहार करने लगे।
- जंगलों में शांतिपूर्वक जीवन यापन करने वाले मुंडा जनजाति के समाज में हिंदू राजाओं द्वारा शासन की सामाजिक व्यवस्था को खराब करने का प्रयास किया गया।
- मुंडाओं के सामाजिक जीवन, सामूहिकता तथा आत्मनिर्भरता पर आधारित थी परंतु बाहरी लोगों जिन्हें दिकु कहा जाता था, उनके हस्तक्षेप के कारण इनकी सामाजिक व्यवस्था अवनति की ओर अग्रसर हो गई।
3.राजनीतिक और प्रशासनिक कारण
- चूँकि अंग्रेजों के हित स्थानीय जमींदारों से मेल खाते थे तथा वे अंग्रेजों के कृपा पात्र पर आश्रित थें स्वाभाविक है कि जमींदारों को विशेष अधिकार तो मिलने ही थे। इसी दिशा में वर्ष 1806 में अंग्रेजों ने स्थानीय दुकानदारों को पुलिस शक्ति प्रदान कर दी जिसका प्रयोग जमींदारों ने मुंडाओं को शोषित करने के रूप में किया।
- इसके अतिरिक्त अन्य ब्रिटिश विभेदकारी नीतिओं के कारण मुंडाओं को लगातार प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा। जिसने कहीं न कहीं विद्रोह की चिंगारी को प्रज्वलित करने का काम किया।
4.धार्मिक कारण
- ईसाई मिशनरियों ने मुंडाओं का जबरन धर्म परिवर्तन करवाया। यधपि कुछ मुंडाओं ने दिकुओं से परेशान होकर, सुरक्षा के आश्वासन के बदले ईसाई धर्म को स्वीकार किया परंतु जब 1886-87 में मुंडा सरदारों ने भूमि वापसी का आंदोलन चलाया तो ईसाई मिशनरियों ने इनका साथ न देकर जमींदारों का साथ दिया।
5.सांस्कृतिक कारण
- गौरतलब है कि मुंडा जनजाति के लोगों की सबसे अहम् पूँजी जंगल थी। वह जंगल से संबंधित अनेक मान्यताओं को मानते थे। उनके संस्कृति की पहचान ही जंगल थी परंतु जब अंग्रेज द्वारा उन्हें जंगल के प्रयोग से ही वंचित कर दिया गया। तब मुंडा को अपनी संस्कृति में हस्तक्षेप के साथ-साथ अपने औचित्य का खतरा मंडराने लगा जिसकी भावना बिरसा मुंडा विद्रोह के रूप में फूटी।
उपरोक्त कारणों से उत्पन्न असंतोष ने भी बिरसा मुंडा आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार की जिसकी शुरुआत 1881-1895 के बीच आंशिक विद्रोह के रूप में हुई। परंतु विद्रोह की व्यापकता 1899 से शुरू हुई।
बिरसा मुंडा आंदोलन का उद्देश्य
1. भूमि की वापसी
- मुंडा जनजाति के लोग गैर आदिवासी जमींदारों द्वारा जबरन लिए गए भूमि को उनके अतिक्रमण से मुक्त कराना चाहते थें।
2. ब्रिटिश शासन की समाप्ति
- इस आंदोलन के माध्यम से मुंडा अपने जीवन में हस्तक्षेप करने वाले साथ ही प्रताड़ित करने वाले ब्रिटिश शासन को जड़ से समाप्त करना चाहते थें।
3.दिकुओं को बाहर भगाना
- दिकुओं द्वारा मुंडाओं का सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक शोषण किया जाता था। साथ ही उनकी महिलाओं के साथ अत्याचार किया जाता था इसी कारण से यह अपने क्षेत्र से दिकुओं को बाहर भगाना चाहते थें।
4. धार्मिक सुधार
- यद्यपि बिरसा मुंडा ईसाई धर्म से प्रभावित थें, परंतु वह नए धर्म की स्थापना कर औपनिवेशिक शोषण के साथ ही ईसाई मिशनरियों को अपने क्षेत्र से बाहर करना चाहते थें।
5.आदर्श राज्य की स्थापना
- मुंडा जनजाति के लोग ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीतियों के कारण त्रस्त हो चुके थें। वह ब्रिटिश शासन का अंत कर एक आदर्श मुंडा राज्य की स्थापना करना चाहते थें। जहां पहले की तरह सामूहिकता तथा आत्मनिर्भरता की भावना का विकास हो सके।
6.सामाजिक कुरीतियों से मुक्ति
- बाहरी हस्तक्षेप, ईसाई मिशनरियों तथा कुछ स्वयं की जनजाति के कारण समाज में कई तरह की कुरीतियाँ व्याप्त हो चुकी थीं। जैसे मदिरापान, व्याभिचार में वृद्धि आदि। बिरसा मुंडा समाज से इन विसंगतियों को समाप्त करना चाहते थें।
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बहरहाल बिरसा द्वारा घोषित उद्देश्यों की दृष्टि से देखा जाए तो इन्होंने न तो ब्रिटिश शासन का अंत कर स्वतंत्र मुंडा राज्य की स्थापना की और न ही अपने क्षेत्र से सभी दिकुओं को बाहर निकालने में सफल हुए।
वस्तुतः यह आंदोलन/ बिरसा मुंडा विद्रोह असफल रहा साथ ही मुंडा जनजाति को तात्कालिक कोई लाभ नहीं मिल पाया। परंतु विद्रोह की भयावहता तथा उग्रता के कारण सरकार को उनकी समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करना पड़ा।
बिरसा मुंडा आंदोलन के परिणाम
1.राजनीतिक प्रशासनिक परिणाम
- 1903 में काश्तकारी संशोधन एक्ट द्वारा पहली बार मुंडा को खूंटकटी व्यवस्था को कानूनी मान्यता प्रदान की गई।
- 1905 में प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से खूँटी तथा गुमला न अनुमंडल बनाए गए।
- ब्रिटिश प्रशासन आदिवासियों के प्रति अधिक संवेदनशील हो गई।
2.आर्थिक परिणाम
- इन्हें बेगारी से मुक्ति मिली।
- मुंडाओं को जमीन संबंधी कई अधिकार प्राप्त हुए।
- इनके जमीन का सर्वे कराया गया।
- छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 के तहत इन्हें इनकी जमीन वापस की गई साथ ही इनकी भूमि बंदोबस्ती भी करवाई गई।
3.सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक परिणाम
- कई सामाजिक,सांस्कृतिक तथा धार्मिक समस्याओं जैसे- शराबखोरी, अशिक्षा, बलिप्रथा बहुदेववाद आदि का उन्मूलन हुआ तथा समाज में आधुनिकता को बढ़ावा मिली।
4.दीर्घकालिक परिणाम
- राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष में बिरसा मुंडा आंदोलन/विद्रोह प्रेरणा का स्रोत बना। इस विद्रोह के उद्देश्य, प्रकृति, संगठन जैसे तत्वों को गांधीवादी आंदोलन में देखा जा सकता है।
बिरसा मुंडा आंदोलन की प्रकृति
1.स्थानीय व जनजाति
- चूँकि इस आंदोलन का प्रभाव क्षेत्र सीमित था साथ ही इसमें भाग लेने वाले लोगों से लेकर नेतृत्वकर्ता तक जनजाति समूह से थें।
2.उपनिवेश विरोधी
- अंग्रेजों द्वारा हमेशा बाहरी जमींदारों का समर्थन किया जाता था इसलिए यह आंदोलन उपनिवेश विरोधी हो गया था।
3.सामाजिक धार्मिक प्रवृत्ति
- बिरसा मुंडा ने स्वयं को भगवान का अवतार बताया तथा सिंगबोंगा की पूजा का आहवान किया साथ ही समाज में फैली विभिन्न बुराइयों के उन्मूलन हेतु प्रयास किए।
4.हिंसक
- इस आंदोलन में मुख्यतया महाजनों को क्षति पहुंचाई गई, ऋण संबंधी दस्तावेजों को जला दिया गया तथा अंग्रेजों के साथ संघर्ष में मुंडाओं ने वीरता का परिचय दिया
5.शोषण विरोधी।
- औपनिवेशिक शक्तियों की दोषपूर्ण नीति तथा जंगलों पर से इन जनजातीय समूह को वंचित कर देना, इस विद्रोह का मुख्य कारण रहा।
6.राष्ट्रवादी
- उल्लेखनीय है कि बिरसा मुंडा एक स्वतंत्र मुंडा राज्य की स्थापना करना चाहते थें। अतः इस विद्रोह को 1857 के विद्रोह का प्रेरणास्रोत भी माना जाता है।
7.सुधारवादी
- उस समय में मुंडाओं के समाज में विभिन्न व्याधियों ने जगह बना ली थीं जैसे – मदिरापान घरेलू हिंसा आदि। बिरसा मुंडा इन्हीं कुरीतियों को खत्म कर एक स्वस्थ एवं आदर्श समाज की स्थापना करना चाहते थें।
8.मसीहावादी
- बिरसा मुंडा खुद को सिंगबोंगा का अवतार मानते थें इसलिए कुछ विद्वान इस आंदोलन के स्वरूप को मसीहवाद की संज्ञा देते हैं।
निष्कर्ष
निष्कर्षतः कहा जाए तो जनजातीय व् राष्ट्रीय आन्दोलनों की श्रेणी में बिरसा मुंडा आंदोलन का नाम अग्रणी है। इस आंदोलन को न केवल ब्रिटिश शासन ने चोट पहुंचायी बल्कि आने वाले राष्ट्रव्यापी आन्दोलनों के लिए प्रकाश पुंज का कार्य किया। इस आन्दोलन की महत्ता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसके मूल्य वर्तमान समाज के लिए प्रेरणास्रोत हैं। इस दिशा में वर्त्तमान प्रधानमंत्री द्वारा बिरसा मुंडा के जन्म दिवस यथा 26 नवम्बर को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाया जाना वर्त्तमान प्रासंगिकता को उजागर करता है।