भारत में नए युग की नारी की परिपूर्णता एक मिथक है।

नए युग की नारी की परिपूर्णता एक मिथक है।

इस निबंध की शुरुआत हम निम्न पंक्तियों के साथ करेंगे, जो इस प्रकार है।

मैं नारी हूँ, मेरी पहचान।
मैं सीता की शक्ति, मैं मंदोदरी की धैर्य हूँ।
मैं राधा की प्रेम , मैं चंडिका की क्रोध हूँ।
मैं गंगा की शीतलता, मैं ज्वाला की आग हूँ।
मैं पद्मिनी, मैं रजिया, मैं मेवाड़ की शान हूँ।
मैं सत्यवती, सावित्री, मैं अनुसुइया की आन हूँ।
मैं ममतामयी नारी, पर संग में तीक्ष्ण कटार हूँ।

यह पंक्तियां भारत में नए युग की नारी की परिपूर्णता की एक झलक बयां कर रही हैं। भारतीय परंपराओं में महिलाओं को उच्च स्थान दिया गया है। हम लोग नवरात्रि में नौ दिनों तक नारी स्वरूपा देवी की उपासना करते हैं, उनकी पूजा करते हैं बड़ी धूमधाम से नवरात्रि के पावन पर्व को मानते हैं। कई राज्यों में नवरात्रि के आखरी दिन कुंवारी कन्याओं को भोजन कराने और उनके पैर पूजने की भी परंपरा है। एक तरह से यह त्यौहार नारी के समाज में महत्व और सम्मान को भी रेखांकित करता है।

लेकिन वास्तविकता में आदर का यह भाव समाज में कुछ समय तक ही रहता है। महिलाएं अपने ऊपर हुई हिंसा एवं उत्पीड़न से संबंधित घटनाओं के बारे में बताती हैं कि हम जल्द ही इसे भुला देते हैं। उदाहरणस्वरूप अभी कुछ समय पहले मणिपुर की दो महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार करके उनको नग्न अवस्था में सड़कों पर परेड करवाया गया और यह घटना मानवीय सभ्यता एवं सो कॉल्ड मॉडर्न सोसाइटी के लिए एक कलंक है।

लानत है इस प्रकार के सभ्य कहलन वाले लोगों पर और ऐसे समाज पर जहां आज भी महिलाओं को केवल एक उपभोग की वस्तु समझा जाता है। इस प्रकार के हजारों घटनाएं हमारे समाज में आए दिन घटते रहते हैं। चाहे दहेज को लेकर जिंदा जलाया जाना या प्यार के नाम पर एसिड अटैक। यह सारी घटनाएं भारत में नए युग की नारी की परिपूर्णता को मिथक साबित कर रहे हैं

जबकि भारतीय संविधान की बात करें तो सभी को (चाहे महिला हो या पुरुष या थर्ड जेंडर) गरिमामय जीवन जीने का अधिकार देता है। सिर्फ गरिमामय ही नहीं बल्कि सभी महिलाओं को बिना किसी भेदभाव के समान अधिकार की गारंटी भी देता है। यहां तक की राज्यों को भी अधिकार दिया गया है कि वह महिलाओं और बच्चों के हित में विशेष प्रावधान बना सकते हैं।

अब प्रश्न यह है कि क्या केवल संविधान में कह देने मात्र से ही महिलाओं का हित किया जा सकते हैं? या राज्यों द्वारा महिलाओं के हित में कुछ नियम कानून बना देने से महिलाओं के साथ हो रही हिंसक घटनाओं को रोका जा सकता है? तो इस प्रकार मेरा जवाब न है। शायद ऐसा होता तो 2011 में दिल्ली में निर्भया कांड न हुआ होता, 2018 में तेलंगाना में निशा के साथ सामूहिक बलात्कार कर फिर उसे जिंदा जला देने जैसी घटना न हुई होती।

अतः सिर्फ कानून के द्वारा ही सब कुछ नहीं किया जा सकता। सबसे पहले महिलाओं की स्थिति की वास्तविकता समझने की जरूरत है कि उनके स्थिति क्या है?और आज भी यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि उनकी स्थिति अब भी मजबूत नहीं है। उदाहरणस्वरूप वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की जेंडर गैप रिपोर्ट जिसके चार पैरामीटर है:
1. आर्थिक भागीदारी एवं अवसर
2. शिक्षा प्राप्ति
3. स्वस्थ एवं उत्तरजीविता एवं
4. राजनीतिक सशक्तिकरण।
इन सभी आधारों पर भारत की स्थिति अच्छी नहीं है।

अब बात करें कार्य स्थलों पर भेदभाव की, तो कानून होने के बावजूद महिलाओं के साथ कार्य स्थलों पर भेदभाव किया जाता है। जबकि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 से 18 समानता के अधिकार की बात करता है। यह किसी भी प्रकार के भेदभाव जैसे जाति, धर्म, लिंग, वंश एवं कार्यस्थल पर भेदभाव की मनाही करता है। इसके बावजूद महिलाओं के साथ ऐसी घटनाएं होती हैं, यह उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।

इन्हें भी पढ़ें – (निबंध – चिंतन एक तरह का खेल है, यह तब तक प्रारंभ नहीं होता, जब तक एक विरोधी पक्ष न हो।)

वैश्विक स्तर पर बात करें तो “इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन”(ILO) की 1944 के ‘फिलाडेल्फिया घोषणा’ में कहा गया था कि सभी इंसान, चाहे वह किसी भी नस्ल, जाति, समुदाय अथवा लिंग के हो, उन्हें आजादी, सम्मान, आर्थिक सुरक्षा एवं अवसर की समान उपलब्धता वाले माहौल में अपने भौतिक एवं मानसिक विकास के लिए प्रयास करने का अधिकार है। तथा भेदभाव उन अधिकारों का उल्लंघन करता है जिनका जिक्र ‘मानव अधिकारों के सार्वभौमिक घोषणा पत्र’ में किया गया है।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ (ILO) का घोषणा पत्र हो या भारतीय संविधान के प्रावधान यह सभी एक आदर्श बनकर कहीं न कहीं रह चुके हैं। जमीनी स्तर पर यह कोसो दूर है। आजादी के 75 वर्षों के बाद भी महिलाओं के साथ हो रही हिंसा के मामलों को लेकर आज भी हम वहीं खड़े हैं। जैसे-जैसे समाज आधुनिकता की तरफ बढ़ रहा है वैसे-वैसे सभ्यता का पतन भी करता जा रहा है। बस कहने के लिए हम मॉडर्न है आज भी हमारी सोच वहीं की वहीं है।

केवल अच्छे-अच्छे कपड़े पहन लेने से या महंगे फोन, गाड़ियां रख लेने से हम सभ्य नहीं कहलायेंगे। कहा जाता है कि जिस सभ्य समाज में महिलाओं को उपेक्षित किया जाता है या भेदभाव या किसी भी प्रकार का हिंसा किया जाता है वह समाज एवं इसकी सभ्यता शीघ्र ही पतन की ओर उन्मुख हो जाती है।

अगर हम विश्व महाशक्ति बनना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें ‘मातृशक्ति का सम्मान’ करना सीखना होगा, और यह तभी संभव है जब तक कि हम पितृसत्ता की मानसिकता को न हटा दें। पितृसत्ता हमारी सामाजिक संरचना का अभिन्न अंग बन चुका है। बचपन से ही हमारे मन में कुछ बातें स्थापित कर दी जाती है, जैसे लड़के- लड़कियों से बेहतर है, परिवार और समाज का मुखिया पुरुष है, महिलाओं को सिर्फ उनके द्वारा स्थापित व्यवस्थाओं का पालन करना है, आदि।

उपरोक्त घटनाएं भारत में ‘नए युग की नारी की परिपूर्णता’ को एक मिथक साबित कर रही हैं। आज हम नए युग में हैं जो 19वीं एवं 20वीं सदी से बिल्कुल अलग है। आज का युग डिजिटल युग है। आज की महिलाएं भी वही पुरानी महिलाएं नहीं रह गई हैं, बल्कि पुरुषों के कंधा से कंधा मिलाकर चल रही हैं।

चाहे वह राजनीति, पत्रकार आईएएस की परीक्षाएं, आईआईटी, उद्यमिता, सेना, अंतरिक्ष हो या खेल। विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं का प्रदर्शन आदित्य रहा है। कुछ चुनिंदा उदाहरण भी हैं – चंदा कोचर, दीपा करमाकर, साक्षी मलिक, मैरी कॉम, द्रौपदी मुर्मु, प्रतिभा देवी सिंह पाटिल, निर्मला सीतारमण, लेफ्टिनेंट फ्लाइट विंग शिवांगी सिंह आदि।

परंतु इनकी संख्या बहुत कम है। महिलाओं की दक्षता की अनदेखी विभिन्न क्षेत्रों जैसे राजनीति, शिक्षा, आईटी, मीडिया इसके अलावा साइंस टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग एवं मैथमेटिक्स में उनकी भागीदारी बहुत कम है। इनके काम का सही मूल्यांकन नहीं होता और घर को सुचारू रूप से संचालित करने में उनकी दक्षता की अक्सर अनदेखी की जाती है।

महिलाओं की अर्थव्यवस्था में भागीदारी बढ़ाने से न केवल सामाजिक व्यवस्था बल्कि अर्थव्यवस्था में भी बदलाव लाया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का मानना है कि अगर भारत में आर्थिक विकास में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के बराबर हो जाए तो भारत की जीडीपी में भारी वृद्धि हो सकती है।

दूसरी तरफ हम विश्व बैंक के आकलन को देखें तो कहा गया है कि, भारत में महिलाओं की नौकरियां छोड़ने की दर बहुत अधिक है। यह पाया गया है कि यदि एक बार किसी महिला ने नौकरी छोड़ी तो ज्यादातर दोबारा नौकरी पर वापस नहीं लौटती हैं। यहाँ नए युग की नारी की परिपूर्णता एक मिथक साबित होती है।

निष्कर्ष

भारत में नए युग की नारी की परिपूर्णता एक मिथक ना बनाकर रह जाए, इसके लिए सबसे पहले पितृसत्ता के मानसिकता को तोड़ना होगा और यह सभी संभव है जब महिलाओं की ‘स्टेम’ में भागीदारी बढ़ाई जाए। इसके लिए ‘महिला आरक्षण बिल’ एक माइलस्टोन साबित हो सकता है। क्योंकि हमारे देश में महिलाओं के प्रतियौन उत्पीड़न के बढ़ते हुए दृष्टांत दिखाई दे रहे हैं इस कुकृत्य के विरुद्ध विद्यमान विधिक उपबंधों के होते हुए भी ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ रही है।

ऐसे में महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने की जरूरत है। उन्हें जॉब टेकर की बजाय जॉब क्रिएटर बनने पर बल देने की आवश्यकता है। ऐसा माहौल क्रिएट किया जाए कि महिलाएं पुरुषों के साथ बराबरी में कंधे से कंधा मिलाकर चले। इसके लिए परिवार, समाज एवं स्कूल तीनों स्तर पर बदलाव की जरूरत है। जब तक महिलाओं के प्रति समाज में सम्मान की चेतना जागृत नहीं होगी तब तक यह सारे प्रयास नाकाफी हैं। अतः चंद पंक्तियों से समाप्त करना चाहूंगी।

“कत्ल केवल वह नहीं होता, जो खंजर से किया जाए,
जख्म केवल वह नहीं होते, जो जिस्म के लहु को बहाए,
कातिल वह भी होता है, जो लफ्जों के तीर चलाएं,
जख्म वह भी होते हैं, जो रूह का नासूर बन जाए।”

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